Description

जब आप अचानक कोई ऐसा काम कर जाते हैं या बात कह जाते हैं जिसका सामने वाला बुरा मान सकता है तो उसके हमला करने से पहले ही आपके पास Ooops या Ooopz कहने का license होता है। ऐसी आवाज़ निकालने के बाद सामने वाले को सिर्फ ख़ून का घूंट पी कर चुप रह जाना चाहिए। ऐसा अच्छे शिष्टाचार के अंतर्गत आता है।

इस license का प्रयोग आप कभी भी कहीं भी कर सकते हैं। बस, Ooops की आवाज़ सही समय पर निकलनी चाहिये। ज़रा सी देर काफी नुक्सान पहुँचा सकती है।

कुछ लोग पहले से ही जानबूझ के गुस्ताख़ी कर के Ooopz करने की कला जानते हैं। काफी सफल हैं वे लोग।

Ooopz blog में मैंने कुछ दूसरों के Ooopz पकड़े हैं और कुछ Ooopz खुद भी किये हैं।

आइये इन सब Ooopz का आनंद उठायें।

(इस blog पर मेरे कुल 35 व्यंग हैं. पृष्ठ के अंत में 'Newer Posts' या 'Older Posts' पर क्लिक करके आगे या पीछे के पृष्ठों पर जा सकते हैं)

Friday, 3 July 2015

To Pee or Not to Pee

हाल ही में Mumbai Mirror (समाचार पत्र) में एक समाचार पढ़ा.… "To pee or not to pee. That is the question". यदि यही समाचार किसी हिंदी संस्करण (जैसे - मुंबई दर्पण) में छपता तो इसी समाचार की headline कुछ ऐसी होती  - "सवाल ये है कि - मूतें या न  मूतें" (Ooopz for the language). भाई वाह…क्या समाचार ढूंढ के लाये। इतनी बड़ी मुंबई में कुछ और नहीं मिला जो आठ इंच ऊंचा और चार कॉलम चौड़ा item अखबार में छाप दिया ?
और सुनिए - समाचार भी क्या था कि इतनी बड़ी मुंबई के किसी कोने में एक सब्ज़ी बेचने वाला है। जिस सोसाइटी में वह सब्ज़ी की दुकान लगाता है, उस सोसाइटी ने उसे कॉलोनी के संडास में अपनी लघुशंका (या दीर्घशंका) का समाधान करने से मना कर दिया है। उसने सोसाइटी के खिलाफ अदालत में केस कर दिया है। "Your Honor ! मैं अपनी धार की धारा society के संडास में ही प्रवाहित करूँ कृपया ऐसा निर्धारित करें।" अब इसमें कानून की कौन सी धारा लगेगी यह तो धारा विशेषज्ञ ही बता सकते हैं। हम तो मात्र एक ही धारा जानते हैं उसका वक्त बेवक्त विसर्जन करते रहते हैं।
अरे भाई, सोसाइटी का संडास है… वो मालिक हैं और उनकी मर्ज़ी है। तू क्या उसे चर्चगेट का Sun Dance bar समझ के घुसना चाह रहा है ? Sun Dance और संडास में फर्क तो समझ। एक में पीने की सुविधा है और दूसरे में निकालने की।
अब देखिये, लघुशंका की समस्या तो सब्ज़ी वाले की है मगर गैस बन रही है समाचार वालों के पेट में। इनके समाचारों में और प्राकृतिक गैस  में अधिक अंतर नहीं होता। ज़रा सा भी आप कुछ गड़बड़ खा लें, तो गैस परेशान करने लगती है.…  पूरे पेट में तब तक उमड़ घुमड़ करेगी जब तक उसे बाहरी रास्ता न मिल जाये और निकलने के बाद ये आज़ू-बाज़ू के लोगों का दिमाग फाड़ देती है। इसी प्रकार कोई छोटी मोटी खबर हाथ लग गई तो इन समाचार वालों की पाचन व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है और जब तक ये लोग सारा दिन उसको शोर शराबे के साथ निकाल नहीं देते, न इनको चैन होता है और न ही हमें चैन लेने देते हैं।
धन्य हैं ये समाचार बेचने वाले ! राई को पहाड़ बता कर बेचना कोई इनसे सीखे। कोई लीची को कटहल कह कर बेचे तो ये उसकी खाल खींच लेंगे लेकिन खुद…?
बोरवैल में बच्चा गिरने की खबर बेच बेच के इतना बोर किया। मानो उन दिनों हिंदुस्तान में इसके अलावा और कुछ हुआ ही न था। इसी तरह 26/11 के हमले का तो इतना विस्तार में ब्यौरा दिया की हमलावरों का काम भी आसान कर दिया। सारे चैनल इस होड़ में एक दूसरे को पछाड़ने में लगे थे। कितने कमांडो छत के कौन से कोने में उतारे गए और किस दिशा से आक्रमण करने जा रहे हैं, यह जानने के लिए कोई भी चैनल लगा के देख लो…सब सीधा प्रसारण करने में लगे थे।
मुंबई की बाढ़ दिखांएंगे तो पानी उतरने के बाद भी उनके चैनल पर डूबने वाले दृश्य जारी रहेंगे। संवाददाता को और बोल देंगे कि बेटा, पानी उतर गया तो क्या, तू पतलून उतार कर किसी गड्ढे में खड़ा हो जा। कमर के नीचे का telecast तो वैसे भी कोई पानी की वजह से नहीं देख पायेगा। दहशत फैलाने से चैनल की TRP बढ़ेगी। अरे भाई ! समाचार दिखाते समय date और time भी डाल दिया करो। कम से कम दर्शकों को पता तो चले की दृश्य पुराने हैं और खतरा टल चुका है। (लेकिन ऐसा करने से समाचार की सनसनी ख़त्म हो जाएगी)
छोटी से छोटी खबर भी इतनी भयानक बना कर दिखाई जाती है कि देखने वाले भी Pee or not to Pee की  हालत में आ जाते हैं और कोई कोई तो पूं or not to पूं के confusion में फँस जाते हैं (Ooopz)।
बचपन में रेडियो और दूरदर्शन पर निर्धारित समय पर 15 मिनट के समाचार आया करते थे। समाचार एकदम neat होते थे। न सोडा न पानी। 15 मिनट में देश-विदेश के समाचार मिल जाते थे। आजकल तो समाचार में अचार ज़्यादा होता है। इतना चटपटा बना कर पेश करते हैं कि देखने या पढ़ने वाला समाचार से ज़्यादा उसके स्वाद में खो जाता है। पूरे दिन न्यूज़ चैनल देखते रहो। पता ही नहीं चलता की समाचार हैं क्या और दिन ख़त्म होते होते पता ही नहीं चलता कि समाचारों में क्या सही था और क्या गलत। पुलिस की छानबीन और अदालत का निर्णय आने से पहले ही समाचार पेश करने वाले अपना निर्णय सुना देते हैं।
नेता जी अच्छा खासा लकदक पजामा कुर्ता पहन कर सवेरे घर से निकले लेकिन दिनभर समाचार वालों ने ऐसी खबर बना कर उछाली कि शाम तक नेता जी को भरोसा हो गया कि  वह पजामा की जगह चड्डी पहन कर निकल गए थे। और किसी किसी चैनल ने तो केवल कुर्ते का ही ज़िक्र किया। अच्छा हुआ नेता जी ने वह नहीं सुना वरना वह बेचारे इसी गफलत में रहते कि वह केवल कुर्ता पहन कर तो नहीं निकल गए थे।
News channels के interviews  तो कमाल के होते हैं। खुद ही सवाल कर के खुद ही मनचाहा जवाब भी दे देते हैं। या प्रश्न कुछ इस तरह से तराशा जायेगा कि सामने वाला वहां भी pee or not to pee के दर्दनाक पशोपेश में पड़ जाता है।
"क्या अब भी आप अपनी पत्नी को पीटते हैं ? सिर्फ हाँ या न में जवाब दीजिये।"
लीजिये, हो गया काम।  बंदा अगर जवाब में 'नहीं' बोले तो इसका मतलब है पहले वह पत्नी को पीटता था। सुनते ही दाढ़ी वाले बाबूजी कैमरे की ओर मुँह कर के चिल्ला चिल्ला कर दर्शकों को सम्बोधित करेंगे "ग़ौर से देखिये इस दरिंदे को, जो अभी तक अपनी पत्नी को पीटता आ रहा था। एक नारी की विडंबना जो वर्षों से इस ज़ालिम का अत्याचार सह रही थी।"
और यदि जवाब में वह ग़रीब ग़लती से 'हाँ' बोल दे तो भी दाढ़ी वाले बाबूजी कैमरे की ओर मुँह कर के चिल्ला चिल्ला कर दर्शकों को सम्बोधित करेंगे "ग़ौर से देखिये इस दरिंदे को, जो आज भी अपनी पत्नी को निडरता से पीटता आ रहा है। एक नारी की विडंबना जो वर्षों से इस ज़ालिम का अत्याचार सहती रही और न जाने कब तक सहती रहेगी।" लो जी ! बन गया दिन भर दर्शकों को चटाने के लिए अचार-पूर्ण समाचार।
उस गरीब को यह कहने का मौका ही नहीं दिया गया कि वह कह सके कि उसने अपनी पत्नी को कभी नहीं पीटा। अगर किसी तरह उसने यह कह भी दिया होता तो वह वाक्य news editing में काट दिया गया होता।  और सारा दिन दर्शक यही अटकलें लगाते रहते कि कौन सही है - दाढ़ी वाले बाबूजी या वह कथित दरिंदा। समाचार वालों को पूर्ण अधिकार है कि वह कुछ भी लिखें, कुछ भी बोलें या कुछ भी दिखाएँ…सामने वाला कुछ कर ही नहीं पाता सिवाय कुलबुला कर रह जाने के। पूरे देश में अपनी गैस की बास छोड़ के ये किनारे हो जाते हैं। आप बस सूंघते रहिए।
हे समाचार दाता ! तुम में और हमारे मिश्रा जी में अधिक फर्क नहीं है। अब आप कहेंगे ये मिश्रा जी कौन हैं। मिश्रा जी, एक ज़माने में, हमारे घर के ऊपर रहा करते थे। हम लोग ground floor पर थे और मिश्रा जी first floor पर। सवेरे से ही मिश्रा परिवार अपनी आकाशवाणी शुरू कर देते थे…दातून कर के कुल्ला हमारे आँगन में, 120 का पान चबा के पिच्च हमारे lawn में, मिश्रानी घर भर में झाड़ू मार के कचरा हमारे घर में। पौधों पर पानी डालेंगे तो आधे से ज़्यादा पानी हमारे आँगन में सूखते हुए कपड़ों पर गिरेगा या खटिया पर सुखाने के लिए रखी हुई अचार की मिर्च पर। हमने मिश्रा जी को समझाने की कोशिश करी तो बड़े ही U.P. स्टाइल में बोले "आपने गज़नी फिल्म तो देखी होगी। उसमें आमिर ख़ान सिर्फ गंजा ही नहीं था बल्कि उसकी खोपड़ी पर बड़ा सा चीरे का निशान भी था। वह getup आप पर एकदम सटीक बैठेगा।" हम कुलबुला के रह गए। वह हमें आमिर ख़ान नहीं बना रहे थे बल्कि typical उत्तर प्रदेश स्टाइल में धमकी दे रहे थे।
मिश्रा जी first floor पर थे और उनको पिच्च और कुल्ले की आकाशवाणी का अधिकार प्राप्त था। उनके चक्कर में हमने भी 120 का पान दबा कर ऊपर की ओर पिच्च करने का प्रयत्न किया पर as  per गुरूत्वाकर्षण नियम, हमारी पिच्च मिश्रा जी के घर तक कभी नहीं पहुंची। फ़ालतू के समाचारों की तरह हम दिनभर मिश्रा परिवार के पिच्च, कुल्ला, कचरा इत्यादि को झेलते रहे लेकिन पलट के कुछ न कर पाए।
तो हे समाचार दाता ! समाचार पढ़ने और देखने वालों पर 120 की पिच्च और कुल्ला करने का अधिकार सिर्फ आपको प्राप्त है। हम गुरूत्वाकर्षण नियमों के अनुसार receiving end पर हैं। यदि किसी ने आप पर पिच्च की कोशिश भी करी तो आप उसकी खोपड़ी को गज़नी की खोपड़ी बनाने का दम रखते हैं।
काश ! technology इतनी तरक्की कर ले कि कैमरों में लप्पड़ fit हो जाएँ जिनका कंट्रोल दर्शकों के पास हो।
हाल ही में, किसी एक न्यूज़ चैनल ने दर्शकों के दर्द को और news channels की कलाबाजियों को ठीक से समझा है और खुलेआम विज्ञापन  दे रहा है कि उसके न्यूज़ चैनल में कोई सर्कस नहीं है, कोई जोकर नहीं हैं और कोई बकवास भी नहीं है। खालिस समाचार हैं। Thank God. लगता है news channel देखने वालों के भी "अच्छे दिन" आने वाले हैं।
मगर Mumbai Mirror के इस समाचार का क्या ? बहुत समझने की  कोशिश करी पर समझ नहीं आया कि क्या सोच कर Mumbai Mirror में शूशू or no शूशू का समाचार छपा था। अगर गरीब सब्ज़ी वाले से हमदर्दी है तो मुंबई में तो इससे भी अधिक गरीब रह रहे हैं जिन्हें खाली दिशामैदान की ही तकलीफ नहीं है।  यदि कोर्ट केस के कारण ये समाचार सुर्ख़ियों में आया है तो अदालतों में तो सैकड़ों केस विचाराधीन पड़े हैं जिनके मुद्दे मूतने पर रोक लगाने से कहीं ऊपर हैं।
खबर पढ़ने के अगले दिन ही मैं खुद उस इलाके में जा कर तीन घंटे तक pressure रोक के घूमता रहा कि शायद कोई मेरी खबर भी छाप देगा लेकिन एक भी संवाददाता ने मेरी खबर नहीं छापी। संभवतः सब्जीवाले से उस संवाददाता के अच्छे ताल्लुक़ात थे (अंग्रेजी में उसे setting कहते हैं।)  ये समाचार वाले भी बहुत अजीब होते हैं।  या तो celebrities की खबर छापेंगे या एक दम गरीब की। हम लोग कब आएंगे किसी भी पेज पर ?
ख़ैर, तुम्हारा अख़बार है… तुम्हारी मर्ज़ी। इकतरफ़ा मामला है - कुछ भी छापो। इसी तरह सोसाइटी का संडास है। किसको मूत्र विसर्जन की अनुमति दें या न दें.… उनकी मर्ज़ी। तुम समाचार वालों अपनी गैस दबा के रखो भैय्या ! और अगर कंट्रोल न हो और निकल जाए तो बिंदास बोलो "Ooopz".

2 comments:

  1. Well said Anurag. Now a days to gain viewers/ readers, these TV channels/ newspapers sensationalise ordinary or normal reports instead of providing correct reports. Media is virtually controlling and gaining powers. It has a big nuisance value

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  2. Nice satire on media. Every word has fire and relevance. Keep it up.

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Thank you for the encouragement.