दो दशक सरकारी बैंक में और लगभग एक दशक निजी क्षेत्र में काम करने के
बाद अक्सर लोग मुझसे ये सवाल करते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र (Public Sector)
में और निजी क्षेत्र (Private
Sector) में अंतर क्या है.
Google करो तो बहुत सारे जवाब मिलेंगे मगर मेरे तजुर्बे के अनुसार सार्वजनिक
क्षेत्र में आप वही सोच रख सकते हैं और बात कह सकते हैं जो आप के बॉस को पसंद हो और इस पकड़ को
पकड़ने के लिए आपकी पकड़ solid होनी चाहिए. बात कितनी ही घिसीपिटी घटिया क्यों न हो,
बॉसवचन सर्वदा उच्चवचन और जब वह बोले तो आप चुपचाप अधखुली आँखों से, भावविभोर होने
का नाटक करते हुए, उसके मुखारविंद को निहारते रहें...उसके गुणगान करते रहें और फिर
जब आप मुँह खोलें तो आपके मुँह से वही शब्दसमूह निकले जो आपका बॉस सुनना चाहें. व्याकरण
में कहीं भी त्रुटी की गुंजाईश नहीं. जिसने ये कला अपना ली उसकी तरक्की पक्की.
अब आप कहेंगे कि बॉस अपनी
तरक्की कैसे सुनिश्चित करे ? लो भाई कल्लो बात...बॉस भी बॉस कैसे बना ? वह भी तो उसी
सिस्टम से बंधा हुआ है. वह अपने बॉस के थोबड़े को निहारे...उसके गुणगान करे और फिर
वही कहे जो उसका बॉस सुनना चाहे...very simple.
इस प्रकार यह श्रृंखला बहुत ऊपर तक जाती है. परिणामस्वरुप सार्वजनिक क्षेत्र
केवल एक आदमी की सोच पर चलता है जो सबसे ऊपर बैठा है बाकी नीचे के सारे चम्मच
कटोरी का काम केवल आवाज़ करना है...ऐसी आवाज़ जो ऊपर वाले को पसंद हो. ऐसा अनिवार्य
है यदि आप उन्नति चाहते हैं तो.
लगभग दो ढाई दशक पहले एक प्रयत्न किया गया था और committee व्यवस्था लागू
की गई जिससे किसी एक व्यक्ति विशेष के ही निर्णय पर निर्भर न रहना पड़े.
जाड़े की सुबह और हलवाई की भट्टी की बुझी हुई गरम गरम राख में कुत्तों
का झुण्ड बैठा था. मुझे दूर से ही देख कर उनका लीडर गुर्राया...बाक़ी का झुण्ड तुरंत मुझ पर भौ
भौ कर के झपट पड़ा. 2-3 दिन बाद फिर उसी सड़क से सुबह सुबह गुज़रना हुआ. वह झुण्ड भी
भट्टी की बुझी हुई राख में मौजूद था. उनके लीडर ने सिर उठा कर मुझे दूर से देखा और
फिर आँखें बंद कर के चुपचाप ऊँघने लगा. बाकी झुण्ड भी चुपचाप पड़ा रहा. यकीन
मानिये...उस दिन से committee व्यवस्था से विश्वास ही उठ गया. ले दे के बात एक ही
सुर की रही .... committee या no committee.
तो भैय्या सुर से सुर मिलाना अनिवार्य है और अगर कहीं आपने अपनी बेहतर
बुद्धि दिखाने के लिए कोई दूसरा सुर लगा दिया तो आपसे ज़्यादा बेसुरा कोई नहीं. सार्वजनिक
क्षेत्र में कई बेसुरे सुरों को मिला कर एक सुर बनता है...आप उस सुर से अपना सुर
मिला सको तो तर गए वरना वीरगति को प्राप्त.
बॉस को मालूम होता है कि वह बेसुरों से सुर मिला कर इतनी ऊँचाई तक
पहुंचा है और
वह यह भी जानता है कि जनता उसकी बुद्धि का स्तर जानती है. ऐसे में
जैसे ही उसे भीड़ में कोई भिन्न सुर सुनाई पड़ता है उसके डैने खड़े हो जाते हैं और
उसको लगता है कि कहीं आप उसकी पोल तो नहीं खोल रहे. बस...आप तो कंपनी के फ़ायदे के
लिए कुछ बुद्धिमानी की बात कर रहे होंगे पर बॉस आप को जड़ से उखाड़ने में लग जाएगा. याद
रखिये - सार्वजनिक क्षेत्र में बुद्धि सिर्फ़ बॉस की जागीर है और उस जागीर पर हमला ?
राम राम राम...तुरंत accountability अस्त्र द्वारा आपको कुचल कुचल के...कूट कूट के
रौंद दिया जायेगा.
सही समझे आप...दूसरा अंतर दोनों क्षेत्रों में है accountability का.
हमारे सार्वजनिक क्षेत्र में accountability शुरू होने से पहले ही, आदमी देख कर यह
तय कर लिया जाता है कि उसको सज़ा क्या देनी है... accountability follows...और फिर
वही बेसुरे, जिन्होंने ज़िन्दगी भर कलम खोलने में किफ़ायत की थी, इकट्ठे हो कर आठ दस
साल तक अजीब अजीब सुर निकाल कर, उस मुद्दे को अंजाम देते हैं. Halloween से कम
नहीं होती ये प्रक्रिया. संस्था का हर आदमी...आपका अपना या पराया...आपको भूत का
मुखौटा पहने लगता है. आप लाख अपने सुर में बुद्धिमानी के जवाब देते रहें पर अंत
में जीत उन बेसुरों के सुर की ही होगी...यह तो लाज़मी है. इस प्रकार जो बची खुची बुद्धिमानी
बैंक में होती है उसका भी क्रिया-कर्म सुनिश्चित कर लिया जाता है.
इति सार्वजनिक क्षेत्रम
(अपवाद हर जगह होते हैं और सार्वजनिक क्षेत्र में भी
हैं जो अपनी जान पर खेल कर भी अपने सुर पर कायम रहते हैं और आखिरी अंतरे तक संस्था
में कुछ जान डालते रहते हैं)
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Thank you for the encouragement.