(मेरी यह रचना ‘सरिता’ के 15 अगस्त
1998 के अंक में छपी थी. लगता है आज 20 साल बाद भी इसमें दम है. ज़्यादा कुछ नहीं बदला).
“सो जाओ बच्चों, रात बहुत हो गई है. कल 15 अगस्त है,
झंडा फहराने चलना है.”
“पिताजी,15 अगस्त को झंडा क्यों फहराते हैं ?”
“इस दिन भारत आज़ाद हुआ था.”
“भारत क्या ?”
“भारत, यानी हमारा देश...जहाँ हम रहते हैं.”
“हमारा शहर ?” छोटी ने पूछा. उसे देश का अर्थ समझने
में कठिनाई हो रही थी.
“नहीं बेटा, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, हमारा देश.”
“हम लोग कश्मीर कब चलेंगे पिताजी ?” छोटी की आँखों में
चमक थी.
“अभी नहीं. कई सालों से वहाँ झगड़े-फ़साद हो रहे हैं...वह
जगह जाने लायक नहीं है.”
“अच्छा ? आज़ादी के पहले वहाँ जा सकते थे ?” छोटी ने
फिर पूछा.
“इस में आज़ादी या ग़ुलामी की बात नहीं है.” मैंने अपने
आप को संयत रखते हुए कहा.
“पिताजी, आज़ादी का मतलब तो समझाइये.” मंझला मचला.
“पहले हम अंग्रेज़ों के ग़ुलाम थे. फिर बड़े बड़े नेताओं
ने अपनी अपनी जान की आहुति दी और हम आज़ाद हो गए.”
“ओह! तो अब कोई बड़ा नेता नहीं बचा ?” मंझले ने टोका.
मैंने तुरंत बात सँभालते हुए कहा “हैं बेटा, अभी भी
देश में बड़े नेता हैं.”
“पिताजी, स्कैम क्या होता है ?” मुझे नहीं अंदाज़ था
कि बड़ा इतना समझदार हो गया था. बताइए...नेता का ज़िक्र आते ही उसके दिमाग़ में स्कैम
का नाम आया. पर मेरे लिए उसका उत्तर देना कठिन था.
“नहीं, पहले आज़ादी का मतलब बताइए.” मंझला फिर मचला.
मैं फंसते फंसते बच गया था. मौका हाथ से न जाए तो
तुरंत बोला “आज हम किसी के ग़ुलाम नहीं हैं, अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं, जो चाहें वह
कर सकते हैं.”
“यानी चोरी, डकैती, धोखाधड़ी या खून भी ?” मंझला कुछ
अधिक उत्सुक था.
“नहीं बेवकूफ़, अच्छे काम कर सकते हैं.” मैं झुंझलाया.
“तो क्या अंग्रेज़ अच्छे काम करने को मना करते थे ?”
अब बारी बड़े की थी.
“नहीं” मैंने दो टूक जवाब दिया.
“तो फिर उन को क्यों भगाया ?”
“वह
हमारे देश को खा रहे थे.”
“देश को कैसे खाते हैं ?” छोटी ने उत्सुकता ज़ाहिर
करी.
“हर विभाग में धांधली कर के जनता का पैसा हज़म कर
जाना.”
“पर आप तो कहते हैं कि हर विभाग में आज भी धांधली
होती है...फिर आज़ादी का मतलब ?” बड़ा मुझे घेर चूका था.
मैंने पैंतरा बदला, “अंग्रेज़ हमें हर जगह जाने से
रोकते थे, अब हम कहीं भी जा सकते हैं.”
छोट की आँखों में चमक आ गई, “कश्मीर भी...?”
मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही बड़े ने तरकश खाली
किया, “अगर हम कहीं भी जा सकते हैं तो फिर हर जगह इत्ती पुलिस क्यों होती है ?”
“हमारी सुरक्षा के लिए”.
“किस से सुरक्षा ? हमें किस से खतरा है, जबकि हम आज़ाद
हैं ?” बड़े के तरकश में अभी भी तीर बाक़ी थे.
“पता नहीं...शायद सभी से.” मुझे इस सवाल का कोई उचित
उत्तर न सूझा.
“फिर तो ग़ुलामी ही अच्छी थी.” मंझले ने अपना निर्णय
सुनाया.
“क्यों ?” मैं गुर्राया.
“हमें पता तो था कि हमें सिर्फ़ एक से ही ख़तरा है,
यानि अंग्रेज़ों से...”
“नहीं, आज़ादी ही अच्छी होती है.” मैंने एक तानाशाह की
भांति अपना फ़ैसला सुनाया.
“क्यों ?” तीनों बच्चों ने एक साथ पूछा.
“अंग्रेज़ हमें आपस में लड़ाते थे, एक जाति को दूसरी
जाति से.”
“वह तो आज भी होता है...आज़ादी के बाद भी.” बड़े ने
दलील किनारे की.
मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, “हाँ ! होता तो है.”
“तो फिर आज़ादी ही क्यों ?” तीनों के गिरोह ने संयुक्त
हल्ला बोला.
मैंने हार मानते हुए कहा, “पता नहीं! बस, अच्छी होती
है...अब सो जाओ.”
बड़ा न माना और बोला “इतने वर्ष आज़ादी के बाद भी आप ग़ुलामी
और आज़ादी में फ़र्क नहीं बता पाए ?”
मैंने थोड़ी देर चिंतन किया और फिर एक दार्शनिक की तरह
बोला, “आज़ादी और ग़ुलामी में बहुत फ़र्क है. आज़ादी हमेशा अच्छी होती है, परन्तु इधर
कुछ वर्षों से इतनी गड़बड़ियाँ होने लगी हैं कि लगने लगा है कि हम पहले विदेशियों के
ग़ुलाम थे और अब अपने ही लोगों के ग़ुलाम हो गए हैं.”
“तो अपने लोगों को कोई समझाता क्यों नहीं ?”
“बेटा ! समझाने से काम चलने वाला नहीं. जब भी आवाज़
उठाई गई तो इन लोगों ने यही कहा कि इन गड़बड़ियों के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है.”
“पिताजी, भारत को हम ‘माता’ कहते हैं न ?” बड़े ने
अपनी दलील कुछ इस तरह शुरू करी.
“हाँ !” मैं ने नए तीर से सामना करने की तैय्यारी
शुरू करी.
“अगर हमारी माँ के साथ कोई बाहरी आदमी दुर्व्यवहार
करे तो क्या आप सिर्फ़ यह कह कर संतोष कर लेंगे कि बाहरी आदमी का हाथ है या कुछ
करेंगे भी ?”
मैंने जोश में जवाब दिया, “मै उसका मुंह तोड़ दूंगा.”
“फिर हम भारतवासी ऐसा क्यों नहीं करते ?” बड़े ने
ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया.
मैंने गला साफ़ करने के बहाने थोड़ा सोचा और कहा “हम
में एकता नहीं है.”
“क्यों ? हम कुछ कौमी एकता की तो बात करते हैं.”
“देश की एकता, कौमी एकता से बढ़ कर है...हमें वह
चाहिए.”
“इतने वर्ष की स्वतंत्रता के बाद भी वह हम में नहीं आ
पाई ?”
“कोशिश कर रहे हैं. बच्चे बच्चे को सिखाया जा रहा है.
तुमने देखा नहीं टीवी, रेडिओ, पुस्तकों इत्यादि में संदेश दिए जाते हैं – हम सब एक
हैं, भारत महान है, सब धर्म समान हैं, देश धर्म से बढ़ कर होता है...”
“क्या ये सारे सन्देश केवल बच्चों पर ही लागू होते
हैं, बड़ों पर नहीं ?
“बच्चे ही तो देश का भविष्य होते हैं.”
“50 वर्ष पहले आप भी तो बच्चे थे, आप भी तो देश का
भविष्य थे, आप ने क्या दिया ?”
मैं निरुत्तर हो कर टुकुर टुकुर बच्चों को देखता रहा.
“पिताजी, लगता है, ये सारे सन्देश टीवी, रेडियो और पुस्तकों
तक ही सीमित हैं. हम सुबह टीवी पर ही झंडा फहरा लेंगे.”’
बच्चे सो गए और मैं रात के अन्धकार में आज़ादी का अर्थ
ढूंढता रहा.
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