Description

जब आप अचानक कोई ऐसा काम कर जाते हैं या बात कह जाते हैं जिसका सामने वाला बुरा मान सकता है तो उसके हमला करने से पहले ही आपके पास Ooops या Ooopz कहने का license होता है। ऐसी आवाज़ निकालने के बाद सामने वाले को सिर्फ ख़ून का घूंट पी कर चुप रह जाना चाहिए। ऐसा अच्छे शिष्टाचार के अंतर्गत आता है।

इस license का प्रयोग आप कभी भी कहीं भी कर सकते हैं। बस, Ooops की आवाज़ सही समय पर निकलनी चाहिये। ज़रा सी देर काफी नुक्सान पहुँचा सकती है।

कुछ लोग पहले से ही जानबूझ के गुस्ताख़ी कर के Ooopz करने की कला जानते हैं। काफी सफल हैं वे लोग।

Ooopz blog में मैंने कुछ दूसरों के Ooopz पकड़े हैं और कुछ Ooopz खुद भी किये हैं।

आइये इन सब Ooopz का आनंद उठायें।

(इस blog पर मेरे कुल 35 व्यंग हैं. पृष्ठ के अंत में 'Newer Posts' या 'Older Posts' पर क्लिक करके आगे या पीछे के पृष्ठों पर जा सकते हैं)

Thursday, 28 January 2021

बड़े मियां सुभानाल्लाह


लो यार
...रुका नहीं गया तुमसे. अभी छोटे भैय्या का KYC कर नहीं पाए थे कि तुम...उनसे भी बड़े भैय्या...टपक पड़े. इसे कहते हैं - नाड़ा बाँधते इससे पहले ही...‘लै फिर लग गई’. पिछले का इलाज ढूंढ नहीं पाए और तुम कमबख्त, अब्दुल्ला की शादी में बेगाने...बिन बुलाए मेहमान, जाने कहाँ से आ धमके और लगे फैलने.

तुम्हारे ख़ानदान में छोटा बड़े से पहले पैदा होता है क्या ? पर इसमें ज़्यादा फैलने की ज़रुरत नहीं. हमारे लोग भी किसी से कम नहीं. हमारे हिंदुस्तान में किसी भी चौराहे पर लाल बत्ती पर खड़े हो जाओ. सिग्नल हरा होने से पहले ही कई ऐसे मियाँ बेताब मिलेंगे जो हॉर्न बजा बजा के धमकी देंगे - गाड़ी हटा बे और हमें पहले जाने दे क्योंकि हम बेइंतेहा बेसब्र हैं. हम इस दुनिया में अपने बड़े भैय्या से भी पहले ही आ गए थे. हम से न रुका जाता कहीं भी.

यह जो तुम पार्ट-1...पार्ट-2...2019...2020 कर के आ रहे हो... इस गफ़लत में न रहना कि तुम कोई सीरियल बना रहे हो, दबंग-1 या 2 नहीं हो तुम. हमारी नज़र में तुम महज़ एक बी केटेगरी के सी टाइप सीरियल किलर हो. छुप के वार करते हो. इसीलिए हमारी दुनिया के वैज्ञानिक तुमको किल करने का इलाज ढूंढ रहे हैं. फ़िलहाल अभी उन्होंने नाम ही खोजा है – कोरोना. वह कुछ न कुछ इलाज कभी न कभी तो खोज ही लेंगे, बस एक बार तुम्हारा PAN और आधार मिल जाने दो उन्हें. फिर न छोड़ेंगे तुम्हें.

(वैसे इन वैज्ञानिकों की बुद्धि पर थोड़ा शक तो होता है. दुर्भाग्यवश दूर की सोच ही नहीं है इनकी. भाप का इंजन बनाया. बोले ‘आसमान बहुत बड़ा है, धुआं उसमें छोड़ेंगे’. आज बोलते हैं आसमान बहुत छोटा हो गया है, दिवाली के एक पटाखे के धुंए भर की भी जगह नहीं है उसमें...बस, पटाखे बंद और दिवाली सन्नाटा. भाई, आसमान तो उतना ही बड़ा तब भी था आज भी है...कोई उनको बोले एक बार अपना मायोपिया भी चेक करा लें. ऐसे बड़े बड़े अविष्कार कर दिए कि कुछ ही सालों में आकाश, धरती, पाताल, समुद्र, नदी, नाले, तालाब, गड्ढा, हवा, पहाड़, जंगल – सब छोटे हो कर कम पड़ने लगे. ख़ुद ही ईजाद करते हैं और बाद में ख़ुद ही बताते हैं यह अविष्कार बर्बाद कर देगा.)

पिछले साल धरती पर जो धावा बोले था उससे बचने के लिए ये लोग बोले ‘दो गज़ की दूरी रखो या दो गज़ ज़मीन के नीचे जाओ.’ इस बात के क़ानून भी बन गए. एक दिन पुलिस वाले ने भीड़ देख कर हमको धर दबोचा. ‘चार बज गए हैं लेकिन पार्टी अभी....’ गाना रुकवा दिया. हमको घूरने लगा. हमने बोला ‘ये पार्टी नहीं...धरना है.’ उसने चारों तरफ़ नज़र मारी. दारु की बोतलें, तंदूरी मुर्गे, बिरयानी, भांति-भांति का चखना, काजू-बादाम...ऐशो-आराम का सामान. उसको विश्वास हो गया कि पार्टी नहीं, धरना ही है. शायद दिल्ली बॉर्डर से ट्रान्सफर हो कर आया था. बिना कुछ बोले चल दिया. हमारा तीर निशाने पे लगा था. 

लेकिन दो कदम चल कर वापस मुड़ा ‘अगर यह धरना है तो यह धरना है किस बात को लेकर ?’

हम भी तरेर दिए ‘धरने वालों से ही पूछ लो.’

वह गुर्राया ‘पुलिस को उल्लू समझा है क्या ? कौन से धरने में धरने वालों को मालूम होता है वह क्यों धरने पर बैठे हैं ?’

‘है न जवाब तुम्हारे पास ? तो और किटकिटाओ मत...बस कट लो अब.’ 

वह तो कट लिया. उसकी छोड़ो...मगर तुम यह बताओ – पहले तुम्हारी बिरादरी वाला...क्या नाम है उसका ?...हाँ ! कोरोना. वह धावा बोला...फिर तुम टपक गए. जो बिचारा घर से बाहर ही नहीं निकलता उसे तुम घर में घुस घुस के दबोचते हो मगर जो खुल्लेआम झुण्ड बना के नाक में दम करते हैं उनके पास भी नहीं फटकते ? तुम्हारी बिरादरी की उन से इतनी फूँक क्यूँ सरकती है ? 

अब तुम्हारी बिरादरी का ही कोई है जो मुर्गों पर टूट पड़ा. अबे अक्ल के पैदल ! मुर्गों पे टूटने से क्या फ़ायदा ? बेचारे बचेंगे भी तो...अंततोगत्वा पचेंगे ही. दम है तो उनके नथुनों में घुस के दिखाओ जो झुण्ड बना के दूसरों के नथुनों में दम किए हुए हैं. 

हमारी तो जिंदगी ही बर्बाद कर दी तुम लोगों ने. कभी जिनके लिए सवेरे सवेरे लाते थे ताज़े गुलाब की कलियाँ आज उनके लिए तुलसी की पत्तियां नोच नोच के ला रहे हैं. पाप लगेगा तुम्हें.

बहुत फुदक रहे हो तुम. याद रखना, गब्बर गारू कह के गए थे ‘जो डर गया, वह मर गया.’ तुमने उनका फ़ॉर्मूला उल्टा कर दिया – ‘जो नहीं डरेगा, वह मरेगा.’ सोच लो कोरोना ! तुमने गब्बर गारु से पंगा लिया है. गब्बर को पता चलेगा तो उनकी आत्मा ऐसी करवट लेगी कि तुम कुत्ते की मौत मरोगे. 

और अगर तुमको वैज्ञानिकों से या गब्बर गारू से भी डर नहीं लग रहा तो...just wait...मैं सर्वोच्च न्यायालय से स्टे ऑर्डर ले आऊँगा. बहुत पावरफुल है वह. किसी भी मुद्दे को समेटने की पॉवर है उसमें. तुम को भी नहीं छोड़ेगा. फिर तुम न फैल पाओगे. कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट तो समझते हो न ?


Wednesday, 10 June 2020

आक थू !!!


वाह रे चिन चिन चू !!! क्या ग़ज़ब का हथियार बनाया तुमने. न बम न पटाखा न धुआं न चिंगारी...बस सुर्र से नाक-मुँह में घुसेड़ दिया और भैय्या पटाक. और अगर न-पटाक...तो आगे फैलाते रहेंगे.

वायरस बनाया भी और नाम भी क्या खूबसूरत दिया...कोरोना. नाम सुन कर ऐसा लगता है जैसे अभी स्टेज पर कोई कोरोना नाम की मस्त अप्सरा उतर कर आयेगी और अपने जलवे दिखाएगी. अगर कुछ साल पहले तुमने इसे launch किया होता तो हमें फिल्मों में अजीत साहब के साथ दो की जगह तीन तीन हसीन असिस्टेंट देखने को मिलतीं – सोना, मोना और कोरोना. माँ कसम पब्लिक चवन्नी की जगह अठन्नी फेंक कर मारती पर्दे पर. ईना-मीना के साथ डीका का तो कोई चांस ही न बनता. नाक के साथ साथ, गाने में भी कोरोना घुस के बैठ गया होता.

कैसे रखा इतना प्यारा नाम ? हिंदुस्तान में तो जैसे ही डॉक्टर कहती है ‘मुबारक हो’, पूरा खानदान गूगल पर नाम ढूँढने में लग जाता है. सुंदर सा, अर्थपूर्ण नाम रखा जाता है लेकिन पूरी उमर उसको पप्पू, टिल्लू, मुन्नी, बिल्लो ही बुलाया जाता है. मगर मजाल है कि कोई कोरोना को कर्रू या कुन्ना कह के बुलाए ? बिना अटके...बिना ज़बान लड़खड़ाए त्रुटिरहित उच्चारण हो रहा है - कोरोना. 

रे, अमरीका की छोड़ो...वह तो ‘क’ बोल भी नहीं पाते. जब भी ‘क’ बोलते हैं, उनकी हवा भी साथ में निकल जाती है और ‘क’ का ‘ख’ हो जाता है...खोरोना. खैर, हवा तो तुमने उनकी वैसे भी निकाल ही दी.

वायरस भी तुमने ऐसा बनाया जो तुम्हारी चपटी नाक के नथुनों में आसानी से घुस नहीं पायेगा लेकिन दुनियां में सब तो चपटी नाक वाले हैं नहीं. और अब तो सब नाक फुलाये बैठे हैं. इस जघन्य पाप की सज़ा तुम्हें मिलेगी...बराब्बर मिलेगी. सारे देशों ने तुम्हारी पुंगी बजाने की ठान ली है. उन्होंने सार्वजनिक मधुमेह घोषित कर दिया...यानि नो चीनी. न तो कोई चीनी के पास जायेगा और न ही उसे अपने पास भटकने देगा. टोटल बहिष्कार और टोटल शुगर फ्री. तुम अपनी मिचमिची आँखों में से झाँक कर देखना आगे तुम्हारा क्या हाल होता है.

ब को पागल कर दिया है तुमने. एक कहता है घर में घुस के रहो तो सरफ़रोश कहता है ‘क्यों बैठूं घर में ?’ एक कहता है ‘sanitizer नहीं लगाओगे तो कोरोना से मर जाओगे.’ तो दूसरा कहता है ‘sanitizer लगाओगे तो स्किन कैंसर से मर जाओगे.’ एक कहता है ‘मास्क नहीं लगाओगे तो कोरोना से मर जाओगे तो दूसरा कहता है कि मास्क लगाओगे तो कार्बन-डाई-ऑक्साइड से मरोगे.’ असली पागल तो आम जनता हुई है. बाहर निकलेगा तो कोरोना से मरेगा...घर में रहेगा तो भूखा मरेगा. यह करूँ तो मरुँ...न करूँ तो मरुँ...तो क्या करूँ जो न मरुँ ? सही रास्ता दिखाने वाले,  हमेशा की तरह, अपनी दुकान चलाने में लगे हैं...चाहें वह धर्म की हो या वोट बैंक की...पुरानी पीढ़ी तो झेल चुकी, आज की पीढ़ी झेलने की आदत डाल रही है और नई पीढ़ी ?

ई पीढ़ी अब A for Apple नहीं बोलती. (Apple बेचने वाला बेचारा ख़ुद भूखा मर रहा है. Apple और ठेले के साथ ग़ायब है). B for Ball भी नहीं बोलते. (बॉल से खेलने वाला बचपन घरों में बंद हैं). होश सँभालते ही नन्हें मुन्नों ने जो देखा वही बोल रहे हैं. उनके लिए A for Ambulance, B for Breathlessness, C for Covid, D for Death हो गया है. Queen तो कभी देखी नहीं तो Q for Quarantine हो गया. माँ से ज़्यादा तो उन्होंने Mask देख लिए तो M for Mother कैसे कह दें ?

ज की पीढ़ी का हाल भी बदल गया है - पहले, लड़के वाले लड़की वालों को बताते थे कि लड़का क्या करता है. और अब, कोरोना आने के बाद, वह बताते हैं कि लड़का क्या क्या कर लेता है.

ड़े बड़े आक़ा अब work from home के नाम पे work for home कर रहे हैं. ऑनलाइन मीटिंग शुरू होते ही, पोछे के गीले हाथ लुंगी से पोंछ कर, हेडफ़ोन लगा कर, अपने जूनियर से पूछते हैं ‘बाक़ी बात बाद में, पहले यह बता कि अंडे उबालने के लिए कितनी सीटी देनी होती हैं ?’ और जूनियर भी कहता है ‘एक मिनट होल्ड करो सर, पापा से पूछ कर बताता हूँ.’

तुम्हारी दुम तो हमेशा से ही टेढ़ी थी पर कहते हैं कुत्ता जब पागल होता है तभी उसकी दुम सीधी होती है. और वह दुनिया को काटता है तो दुनिया पागल होती है.

द्दाख़ में तुम्हारा लफड़ा तुम्हारे पागलपन की ही निशानी है और यह तुम्हारी दूसरी गलती होगी. सन 1962 में हिन्दी-चीनी भाई-भाई कर के धोखा दिए थे लेकिन अब हमारे यहाँ भाई वह भाई नहीं हैं. अब वह सुपारी उठा कर टपकाते हैं. पांच पांच सौ युआन में तुम्हारा एक एक फौजी तुम्हारे घर में घुस के टपका देंगे. खैर हमें इतना खर्चा करने की ज़रूरत भी नहीं है. 2 युआन का एक गुटखा आता है. हिमालय के बगल में ही हमारा यू.पी., बिहार है. एक ट्रक गुटका और पचास ठो यू.पी., बिहार वाले ट्रक में लाद के हिमालय पार भेज देंगे. तुम्हारे शार्प शूटर से कहीं सटीक निशाना होता है हमारे गुटखइयों का. तुम्हारी सेना के मुंह पे चुन चुन के इतनी पिच्च मारेंगे कि सारे कोरोना पॉजिटिव हो जायेंगे...दूसरा वुहान बना देंगे लद्दाख़ के दूसरी तरफ़. चिन चिन चू की जगह चुन चुन थू !!!

टाइम है अभी भी...लिकल लो...नहीं तो...आक़ थू !!!

Friday, 15 May 2020

Negative बनाम Positive


8 बजने से पहले ही लोग टीवी से चिपक चुके थे. पता नहीं आज क्या बोलेंगे ? थाली कटोरी घंटी घंटा बैंगन लौकी...और कुछ ‘वगैरह’ भी इकट्ठे कर के अगल बगल चपका के रख लिए थे. जिसका भी आवाहन करेंगे वह तैय्यार...पलक झपकते...बस प्रभु lockdown खोलने का ऐलान कर दो.
बहुतों को इंतजार है इसका ‘अब बहुत हो गया...इस बंद घर में नहीं रहा जा रहा अब. घुटन ही घुटन. इस घुटन में घुट घुट के मरने से अच्छा, बाहर खुली हवा में कोरोना से मरें.’ कह तो दिया जोश में आ कर...पर बाहर निकलने में...वह क्या कहते हैं...फूँक सरक रही थी सबकी.
वैसे हालत तो बहुतों की ऐसी ही थी. खुल भी गया तो बाहर निकलने का माद्दा नहीं है. ब्लड ग्रुप भी पूछो तो B बोल के चुप हो जाते हैं. ‘Positive’ का उच्चारण करने में ज़ुबान लड़खड़ा रही है. ऐसे में क्या बाहर निकलेंगे ?
कोई जान के डर को ले कर रो रहा है. कोई धंधे को ले कर रो रहा है. किसी की नौकरी अब या तब हो रही है. अगर किसी को कोई और ग़म नहीं सूझ रहा है तो वह पूरे देश की अर्थव्यवस्था को ले कर परेशान है. मुंह के बाहर मास्क है और मुंह के अंदर कलेजा...बिलकुल हलक पे. कब तक चलेगा ऐसे ? चलेगा भी या नहीं ? सब ख़त्म होने जा रहा है क्या ?
प्लेट में चखना डालते हुए एक नज़र बोतल पर डाली. आधी भरी थी...नहीं आधी खाली थी...Total कनफूजन. समझ में नहीं आ रहा पहले बोतल खलास होगी या दुनिया ? भला हो बोतल का जो दुनिया घूमती लग रही है नहीं तो सवेरे से थोड़ी थोड़ी देर में झाँक झाँक के देख रहे थे सूरज कुछ सरका या धरती थम गई है ?
घबराहट का आलम यह कि कोई हलो भी बोलता है तो लगता है अलविदा कह रहा है. आँखें इतना धुंधला गई हैं कि WhatsApp पर HBD भी RIP नज़र आता है. बचपन में मास्टर साहेब से पूछते थे ‘सवेरा होने को पौ फटना क्यों कहते हैं ?’ वह तो लाख कोशिश बावजूद न समझा पाए पर कोविड गुरु ने समझा दिया. सवेरे सवेरे अखबार उठाओ तो “कितने और मरे” से दिन शुरू होता है. चिर्र्र्रर्र्र्र...फटाक. सवेरा हो गया. फट गई भैय्या...पौ फट गई और अच्छी तरह से फट गई. अब ध्यान से देखो सारे आंकड़े अख़बार में ‘कितने मरे, कितने बचे और कितने मरने की तैय्यारी में हैं.’ दुनिया में कितने मरे, देश में कितने मरे, आपके राज्य में, शहर में, मोहल्ले में, नुक्कड़ से 30 फ़िट दूर...सारा ब्यौरा है. इस पूरे नक़्शे में आप किधर बैठे दिख रहे हो ? इस बात से हर सुबह चिर्र्रर्र्र्रर्र्र...फटाक की इन्तेहा कैलकुलेट कर लो और पौ का धमाका कितना दमदार है, वैसे ही तय कर लो जैसे दिवाली पर सुतली बम का करते हो.
टीवी चालू हो गया. 8 बज गए....8.05...8.10...8.12...8.13... गर्व और आत्मनिर्भर का विषय चल रहा था. स्क्रीन के बीच में मोदी जी और चारों ओर चैनल वालों के तरह तरह के विज्ञापन. ज़ाहिर सी बात थी...विज्ञापनों में देशवासियों के लिए सन्देश और चैनल के लिए कमाई की कमाई. साबुन, सेनेटाईज़र, मास्क, डेटोल, दस्ताने, पी.पी.ई.
अचानक एक चौंका देने वाला विज्ञापन आया – एक फार्मा कंपनी...सभी फार्मा वाले कोरोना से बचने की दवाई बेच रहे हैं. मगर चौंकाने वाली बात थी कि यह कंपनी ‘गिरते बालों का इलाज बेच रही थी.
यह कउन गाँव से है भाई ? यहाँ गंजे की जान के लाले पड़े हैं और भाई बाल उगाने की दवा बेच रहे हैं. लाखों रूपये चैनल को दे रहे हैं इस इश्तेहार का, वह भी इस माहौल में ? कौन गंजा इस माहौल में जान की छोड़ के बाल की चिंता करेगा ? बाल हैं तो जहान है...ऐसा तो कभी सुना नहीं.
मैंने दो चार टकले दोस्तों को फ़ोन लगाया – ‘बोल, जान चाहिए या खोपड़ी पर बाल ?’
‘अरे यह कैसा either or survivor जैसा सवाल कर रहा है ? देसी लगा रहा है क्या ? किधर मिली ?’ सब का एक ही सवाल. लेकिन इतने दिनों बाद उनकी आवाज़ में मायूसी की जगह कुछ चमक थी...एक उम्मीद थी. शायद दारु की ?
और फिर थोड़ी देर बाद सारे टकले दोस्तों की मिलीजुली आवाज़ ने स्पष्ट किया “यार, सही सवाल किया तूने. जाना ही है तो कोई अरमान छोड़ के क्यों जाएँ ? खोपड़ी पर बाल न सही मगर दिल में अरमान तो हैं ही. आख़िरी फ़ोटो में खोपड़ी पे बाल दिखें तो क्या मस्त लगेंगे. जो भी बाक़ी के दिन कोरोना के साथ कटने हैं क्यों न बालों की उम्मीद में काटे जाएँ ? हर नया दिन अखबार में लाशें गिनने से तो अच्छा कि शीशे में खोपड़ी पर नए उगे बाल गिने जाएं. जिनके हैं...वह कटवाने के इंतज़ार में जी रहे हैं...तो जिनके नहीं हैं वह उगने के इंतज़ार में क्यों नहीं जी सकते ? तूने जान डाल दी इस बेजान जिंदगी में. थैंक्यू.”
और मैं उस फार्मा कम्पनी को तहे दिल से शुक्रिया अदा कर रहा था कि इतने दह्शती माहौल में भी वह लाखों रूपये खर्च करके कितने लोगों को जीने की चाह दे रही है. शायद यही है कोरोना से लड़ने का सफ़ल तरीका...BE POSITIVE...कोरोना positive कुछ नहीं कर पाएगा.

Tuesday, 14 August 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय

(मेरी यह रचना ‘सरिता’ के 15 अगस्त 1998 के अंक में छपी थी. लगता है आज 20 साल बाद भी इसमें दम है. ज़्यादा कुछ नहीं बदला).
“सो जाओ बच्चों, रात बहुत हो गई है. कल 15 अगस्त है, झंडा फहराने चलना है.”
“पिताजी,15 अगस्त को झंडा क्यों फहराते हैं ?”
“इस दिन भारत आज़ाद हुआ था.”
“भारत क्या ?”
“भारत, यानी हमारा देश...जहाँ हम रहते हैं.”
“हमारा शहर ?” छोटी ने पूछा. उसे देश का अर्थ समझने में कठिनाई हो रही थी.
“नहीं बेटा, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, हमारा देश.”
“हम लोग कश्मीर कब चलेंगे पिताजी ?” छोटी की आँखों में चमक थी.
“अभी नहीं. कई सालों से वहाँ झगड़े-फ़साद हो रहे हैं...वह जगह जाने लायक नहीं है.”
“अच्छा ? आज़ादी के पहले वहाँ जा सकते थे ?” छोटी ने फिर पूछा.
“इस में आज़ादी या ग़ुलामी की बात नहीं है.” मैंने अपने आप को संयत रखते हुए कहा.
“पिताजी, आज़ादी का मतलब तो समझाइये.” मंझला मचला.
“पहले हम अंग्रेज़ों के ग़ुलाम थे. फिर बड़े बड़े नेताओं ने अपनी अपनी जान की आहुति दी और हम आज़ाद हो गए.”
“ओह! तो अब कोई बड़ा नेता नहीं बचा ?” मंझले ने टोका.
मैंने तुरंत बात सँभालते हुए कहा “हैं बेटा, अभी भी देश में बड़े नेता हैं.”
“पिताजी, स्कैम क्या होता है ?” मुझे नहीं अंदाज़ था कि बड़ा इतना समझदार हो गया था. बताइए...नेता का ज़िक्र आते ही उसके दिमाग़ में स्कैम का नाम आया. पर मेरे लिए उसका उत्तर देना कठिन था.
“नहीं, पहले आज़ादी का मतलब बताइए.” मंझला फिर मचला.
मैं फंसते फंसते बच गया था. मौका हाथ से न जाए तो तुरंत बोला “आज हम किसी के ग़ुलाम नहीं हैं, अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं, जो चाहें वह कर सकते हैं.”
“यानी चोरी, डकैती, धोखाधड़ी या खून भी ?” मंझला कुछ अधिक उत्सुक था.
“नहीं बेवकूफ़, अच्छे काम कर सकते हैं.” मैं झुंझलाया.
“तो क्या अंग्रेज़ अच्छे काम करने को मना करते थे ?” अब बारी बड़े की थी.
“नहीं” मैंने दो टूक जवाब दिया.
“तो फिर उन को क्यों भगाया ?”
वह हमारे देश को खा रहे थे.”
“देश को कैसे खाते हैं ?” छोटी ने उत्सुकता ज़ाहिर करी.
“हर विभाग में धांधली कर के जनता का पैसा हज़म कर जाना.”
“पर आप तो कहते हैं कि हर विभाग में आज भी धांधली होती है...फिर आज़ादी का मतलब ?” बड़ा मुझे घेर चूका था.
मैंने पैंतरा बदला, “अंग्रेज़ हमें हर जगह जाने से रोकते थे, अब हम कहीं भी जा सकते हैं.”
छोट की आँखों में चमक आ गई, “कश्मीर भी...?”
मैं कुछ कह पाता, इसके पहले ही बड़े ने तरकश खाली किया, “अगर हम कहीं भी जा सकते हैं तो फिर हर जगह इत्ती पुलिस क्यों होती है ?”
“हमारी सुरक्षा के लिए”.
“किस से सुरक्षा ? हमें किस से खतरा है, जबकि हम आज़ाद हैं ?” बड़े के तरकश में अभी भी तीर बाक़ी थे.
“पता नहीं...शायद सभी से.” मुझे इस सवाल का कोई उचित उत्तर न सूझा.
“फिर तो ग़ुलामी ही अच्छी थी.” मंझले ने अपना निर्णय सुनाया.
“क्यों ?” मैं गुर्राया.
“हमें पता तो था कि हमें सिर्फ़ एक से ही ख़तरा है, यानि अंग्रेज़ों से...”
“नहीं, आज़ादी ही अच्छी होती है.” मैंने एक तानाशाह की भांति अपना फ़ैसला सुनाया.
“क्यों ?” तीनों बच्चों ने एक साथ पूछा.
“अंग्रेज़ हमें आपस में लड़ाते थे, एक जाति को दूसरी जाति से.”
“वह तो आज भी होता है...आज़ादी के बाद भी.” बड़े ने दलील किनारे की.
मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, “हाँ ! होता तो है.”
“तो फिर आज़ादी ही क्यों ?” तीनों के गिरोह ने संयुक्त हल्ला बोला.
मैंने हार मानते हुए कहा, “पता नहीं! बस, अच्छी होती है...अब सो जाओ.”
बड़ा न माना और बोला “इतने वर्ष आज़ादी के बाद भी आप ग़ुलामी और आज़ादी में फ़र्क नहीं बता पाए ?”
मैंने थोड़ी देर चिंतन किया और फिर एक दार्शनिक की तरह बोला, “आज़ादी और ग़ुलामी में बहुत फ़र्क है. आज़ादी हमेशा अच्छी होती है, परन्तु इधर कुछ वर्षों से इतनी गड़बड़ियाँ होने लगी हैं कि लगने लगा है कि हम पहले विदेशियों के ग़ुलाम थे और अब अपने ही लोगों के ग़ुलाम हो गए हैं.”
“तो अपने लोगों को कोई समझाता क्यों नहीं ?”
“बेटा ! समझाने से काम चलने वाला नहीं. जब भी आवाज़ उठाई गई तो इन लोगों ने यही कहा कि इन गड़बड़ियों के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है.”
“पिताजी, भारत को हम ‘माता’ कहते हैं न ?” बड़े ने अपनी दलील कुछ इस तरह शुरू करी.
“हाँ !” मैं ने नए तीर से सामना करने की तैय्यारी शुरू करी.
“अगर हमारी माँ के साथ कोई बाहरी आदमी दुर्व्यवहार करे तो क्या आप सिर्फ़ यह कह कर संतोष कर लेंगे कि बाहरी आदमी का हाथ है या कुछ करेंगे भी ?”
मैंने जोश में जवाब दिया, “मै उसका मुंह तोड़ दूंगा.”
“फिर हम भारतवासी ऐसा क्यों नहीं करते ?” बड़े ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया.
मैंने गला साफ़ करने के बहाने थोड़ा सोचा और कहा “हम में एकता नहीं है.”
“क्यों ? हम कुछ कौमी एकता की तो बात करते हैं.”
“देश की एकता, कौमी एकता से बढ़ कर है...हमें वह चाहिए.”
“इतने वर्ष की स्वतंत्रता के बाद भी वह हम में नहीं आ पाई ?”
“कोशिश कर रहे हैं. बच्चे बच्चे को सिखाया जा रहा है. तुमने देखा नहीं टीवी, रेडिओ, पुस्तकों इत्यादि में संदेश दिए जाते हैं – हम सब एक हैं, भारत महान है, सब धर्म समान हैं, देश धर्म से बढ़ कर होता है...”
“क्या ये सारे सन्देश केवल बच्चों पर ही लागू होते हैं, बड़ों पर नहीं ?
“बच्चे ही तो देश का भविष्य होते हैं.”
“50 वर्ष पहले आप भी तो बच्चे थे, आप भी तो देश का भविष्य थे, आप ने क्या दिया ?”
मैं निरुत्तर हो कर टुकुर टुकुर बच्चों को देखता रहा.
“पिताजी, लगता है, ये सारे सन्देश टीवी, रेडियो और पुस्तकों तक ही सीमित हैं. हम सुबह टीवी पर ही झंडा फहरा लेंगे.”’

बच्चे सो गए और मैं रात के अन्धकार में आज़ादी का अर्थ ढूंढता रहा. 

Saturday, 21 July 2018

अनर्थशास्त्र

सुबह बहुत खुशनुमा थी. WhatsApp ग्रुप पर पहला सन्देश था कि हर ग़रीब के खाते में रु.15 लाख आ चुके हैं. चलो...मोदी जी ने अपना वादा पूरा किया. मैं बहुत खुश हुआ कि कितने ग़रीबों का भला हो जाएगा.
पूरा समाचार जानने के लिए समाचार पत्र ढूँढा तो वह नदारद था. बिना उसके हमारी छोटी और बड़ी आंत हरकत में ही नहीं आतीं. गुस्से में पेपर वाले को फ़ोन लगाया – क्या यार ! आठ बज गए और पेपर नहीं डाला ?’
साहब ! कोई लड़का काम पे नहीं आया. सबके खाते में 15 लाख आ गए हैं और वे काम छोड़ कर गए. मैं ख़ुद ही पेपर डाल रहा हूँ. 3-4 घंटों में आपका नम्बर आ जाएगा.
मैंने बेग़म को आवाज़ दी मैडम ! चाय मिल जाए तो शायद कुछ प्रेशर बन जाए.
आज चाय नहीं मिलेगी. दूध नहीं आया. पड़ोसन का फ़ोन आया था. दूधवाले के खाते में 15 लाख आ गए हैं. वह कह गया है दूध का धंधा बंद. कौन 4 बजे उठ कर भैसों को सानी दे और दुहे ?’ बेग़म का डायलॉग चालू रहा बाई ने भी अपने नए एंड्राइड फ़ोन से WhatsApp मेसेज किया है. उसके खाते में भी 15 लाख आ गए हैं. आज से काम पे नहीं आएगी. तुम आ कर बर्तन धोने में मेरा हाथ बंटा दो. झाड़ू मैं लगा दूंगी तुम पोछा लगा देना.
मैं बड़बड़ाया तुमको कोई अमीर कामवाली नहीं मिली थी रखने को ? कम से कम उसको तो 15 लाख नहीं मिलते.
बड़बड़ाओ मत... बेग़म गूंजी तुम से कुछ नहीं होगा. मुझे लगता है महाराजिन के भी खाते में 15 लाख आ गए हैं. अभी तक तो आई नहीं है. खाना मुझे ही बनाना होगा. तुम कम से कम टमाटर तो ला सकते हो बाज़ार से.
यह काम आसान है मैंने सोचा और झोला लपक के बाहर सटक लिया. हमारी कॉलोनी के बाहर ही सड़क किनारे बीसियों सब्ज़ी वाले बैठते हैं.
कॉलोनी के बाहर तो सन्नाटा था. एक भी सब्ज़ी वाला या ठेले वाला नहीं. सड़क बहुत चौड़ी दिख रही थी. पता लगा उन सब के खातों में भी 15 लाख आ चुके थे और अब वे सड़क किनारे सब्ज़ी की टोकरी का धंधा wind up कर चुके थे. अब वह उनकी शान के खिलाफ़ था क्योंकि वे सब लखपति थे. कोई चारा न था. 3 किलोमीटर दूर, मंडी से ही टमाटर लाने पड़ेंगे.
गाड़ी निकालने लगा तो देखा आज बिरजू ने गाड़ी भी नहीं धोई है. मिट्टी और कीचड़ से अटी पड़ी है. सोचा ऑटो पकड़ लूं. शायद भूल गया था कि ऑटो वाले भी ग़रीब थे. दूर दूर तक कोई ऑटो नहीं था. सब की 15 लाख की सम्मिलित डकार मेरे कानों में गूंजने लगी.
खैर, गाड़ी निकाल के मंडी पंहुचा. नज़ारा कुछ और ही था. लगा पूरा हिंदुस्तान वहीँ टूट पड़ा है. ज़ाहिर था...हर मोहल्ले की सड़कें बहुत चौड़ी हो चुकी होंगी क्योंकि सड़क से सारे ठेले और खोंचे  ग़ायब हैं. बहुत ढूँढा तो एक गाले पर एक टमाटर की ढेरी दिख गई. मैंने कहा यार, 1 किलो टमाटर दे दो.
वह बड़ी रुखाई से बोला 3 किलो की ढेरी है. रु 1,050 लग चुके हैं इसके. आप कितना दोगे ?’
मैं गुर्राया अरे भाव बताओ 1 किलो का. बोली मत लगवाओ.
बाबूजी ! पूरी मंडी में बस यही टमाटर बचा है. आज खेत से कोई सब्ज़ी नहीं आई है. साढ़े तीन सौ रु किलो में मिल रहा है. भर लो. कल से तो शायद ये भी न मिले. हर ग़रीब किसान के घर में 4-5 आधार कार्ड हैं और हर कार्ड पर 15 पेटी मिले हैं. जब तक ये साले ठेके पर लुटा नहीं देंगे, कोई खेत में नहीं घुसेगा.
भीड़ में से एक आवाज़ आई ये लो 1,200 और बांध दो. मैं सोचता ही रह गया और यह बिरजू का बच्चा 400 रु किलो में टमाटर उठा ले गया. ग़रीब बिरजू...मेरी गाड़ी धोने वाला.
सामने से मिश्रा जी आते हुए दिखे. ग़रीब से भी ज़्यादा ग़रीब दिख रहे थे. पास आए तो उनके कपड़ों से आती हुई फिनायल की गंध उनकी सवेरे से अब तक की दास्ताँ कह गई. शायद पोछा लगाने का उनका यह पहला तजुर्बा था.
टमाटर नहीं मिले...पता नहीं कि वह सवाल कर रहे थे या यह उनकी खोज का अंतिम नतीजा था. 2,000 रु ले कर सब्ज़ी लेने आया था. इतने में तो दो लौकियाँ ही मिलीं हैं. बिना टमाटर के यह ही खा लेंगे.
क्या मिश्रा जी. आप को तो ख़ुश होना चाहिए. चार साल से तो आपको मोदी जी से यही शिकायत थी कि वादा करके वह मुकर गए. अब आ गए न हर खाते में 15 लाख रु.
डबडबाई आँखों और रुंधे गले से बोले आज से पोछा लगाने की ड्यूटी मेरी. बाई काम छोड़ गई. और जाते जाते मेरी बीबी से बोली कोई अच्छी लड़की दिखे तो मेरे घर भेज देना मैडम. एक बाई रखनी है मुझे.
फिर थोड़ा संयत हो कर बोले ग़लती हो गई भैय्या...बहुत बड़ी ग़लती. इतने दूर की तो सोची भी न थी. भड़काऊ लोगों के बहकावे में आ गए. चार साल से जो गालियां निकल रही थीं, पिछले चार घंटों में ही मेरे अंदर बुद्धि और गुरुदत्त की रूह – दोनों आ चुकी हैं
यह गरीबों, किसानों, मजूरों की दुनिया.
बैठे बैठे ही लाखों पाने वालों की दुनिया.
ये बुद्धि से पैदल भड़काऊओं की दुनिया.
फ्री में गर लाखों मिल जाए तो क्या हो ?
अब देख लो – फ्री में लाखों मिल जाए तो ये हो. हर जेब का साइज़ देख कर भाव बढ़ेंगे. उदाहरण की भाषा उन्हीं लोगों के सामने बोलो जो उदाहरण समझें वरना वे लोग जिंदगी भर भैंस के आगे बीन बजायेंगे और शिकायत करेंगे कि कुछ हुआ ही नहीं.


(यह भविष्यवाणी अर्थशास्त्र से प्रेरित है. कृपया राजनीति को दूर रख कर पढ़ें. जल्दी समझ आएगी)

Monday, 25 June 2018

नानागिरी

न गए भाई...हम नाना बन गए. भगवान भला करे बच्चों का जिन्होंने हमें नाना बनाया वरना पैदा होने से अब तक, समाज हमें उल्लू ही बनाता आ रहा था.

पैदा होते ही न जाने कैसे कैसे घिनौने स्वाद वाली दवाईयाँ हमारे मुँह में ‘लू लू लू’ की आवाज़ कर के डाल दी जाती थीं और हम समझते रह जाते थे कि ‘लू लू’ कोई बहुत स्वादिष्ट व्यंजन होगा. मगर वह ‘उल्लू’ का ही संक्षिप्तिकरण था.
स्कूल में घुसे तो टीचर यह कह के उल्लू बनाती रहीं कि ‘बेटा ! मम्मी बाहर ही खड़ी हैं. अभी आती हैं.’ और हम क्लास के दरवाज़े की ओर टकटकी लगाए मम्मी का इंतज़ार करते रह जाते. हम कई class पार कर गए पर मम्मी कभी छुट्टी से पहले नहीं आईं. इस बीच टीचर ने 5-6 नर्सरी rhymes और 2-3 पहाड़े घोट घोट कर हमारे गले के नीचे उतार दिए. हम एक बार फिर उल्लू बन गए.

थोड़ा और बड़े हुए तो पापा ने, हमें लगभग घसीट के दुकान से बाहर ले जाते हुए, कहा ‘बेटा ! यह खिलौना कल दिलाएंगे.’ हम भी किसी ग़रीब मतदाता की तरह उनकी बातों में आ गए और ग़रीबी हटने के लिए अगले चुनाव का इंतज़ार करते रहे. विश्वास मानिये हम सीनियर सिटिज़न हो गए मगर पापा का वह ‘कल’ आज तक नहीं आया. हम मुतवातिर उल्लू बनते रहे और खिलौनों और कल के इंतजार में बुड्ढे हो गए.

र फिर चली वार्षिक उल्लू बनाने की प्रक्रिया ‘बेटा ! दसवीं में अच्छे नम्बर नहीं आए तो जिंदगी बर्बाद.’ फिर बारहवीं और ग्रेजुएशन में भी इसी प्रकार की धमकियाँ हमें हमारे उल्लू होने का समय समय पर एहसास दिलाती रहीं.

नौकरी लगी तो बॉस ने बोला ‘मेहनत से काम नहीं करोगे तो प्रमोशन भूल जाओ.’ हम देर रात तक ऑफिस में बैठ बैठ कर अपने उल्लू होने का प्रमाण देते रहे और चिल्लरनुमा प्रमोशन ले ले कर रिटायर भी हो गए. बॉस हमारी मेहनत के बल पर बहुत ऊपर पहुंचे और रिटायरमेंट के बाद एक्सटेंशन भी पा गए.

माने लगे तो सरकार ने कहा ‘सही टैक्स सही वक्त से भरो और आराम की जिंदगी जियो’. हम वक्त से टैक्स भरते रहे और आराम से ख़ुद ही विजय सुपर से बच्चों को स्कूल छोड़ते रहे. जो बेचारे टैक्स की चोरी करते थे वे बड़ी तकलीफ़ में अपने ड्राईवर के साथ बच्चों को मर्सडीज़ में भेजते थे. अब पता चला कि उल्लू हम थे जो हम उन लोगों का भी टैक्स भरते रहे.

गर अब ये नहीं चलेगा. अब हम उल्लू नहीं – नाना हैं.

ब बच्चे के साथ वक्त गुज़र जाता है...पता ही नहीं चलता. उसको तो बस दो ही काम हैं...खाओ और हगो. किसी नेता से कम नहीं है - पॉवर में है तो खायेगा...पॉवर छिन गई तो पूरे देश में गंद फैलाएगा. बच्चे के रोने से अंदाज़ ही नहीं लगता कि भूखा है या तिकोनी गीली कर दी है या गोदी में आना चाहता है. बिलकुल किसी सधे हुए नेता के माफ़िक – भाषण से अंदाज़ ही नहीं लगता कि हमारे फ़ायदे की बात कर रहा है या अपने फ़ायदे की...देश को बचाना चाहता है या उसे बेच खाना चाहता है. पहले हम हर चुनाव में उनकी टोपी बदलते रहे और उल्लू बनते रहे. अब हम बच्चों की तिकोनियाँ बदल रहे हैं क्योंकि हम नाना हैं और अब हम ज्ञानी हैं. अब हम वही तिकोनी और टोपी बदलते हैं जो गन्दी होती हैं. इसलिए सभी राजनीतिक पार्टियों से अनुरोध है कि आम चुनाव में जीतने के लिए कृपया अपनी तिकोनी...मतलब टोपी...पर फोकस करें और उसे बेदाग़ रखें. दूसरे की टोपी पर कीचड़ उछाल कर हमें न बताएं कि आपकी तिकोनी साफ़ है और उसकी गन्दी. यह निर्णय देश के अनेक ज्ञानी नानाओं पर छोड़ दें.

Sunday, 25 February 2018

पतली गली के मुसाफ़िर

नीरव मोदी का मामला तो ऐसा हो गया मानो देश भर में कोई नया त्यौहार आ गया. हर जुबान पर, सुबह और शाम, बस एक ही नाम. सब धर्म के लोग एक हो गए...देश एक हो गया. सब मिल कर किसी न किसी को गाली देने में लग गए – कोई सारे बैंकों को, तो कोई केवल सरकारी बैंकों को, तो कोई रिज़र्व बैंक को और कोई ऑडिटर को (यानि नीरव मोदी को छोड़ कर बाक़ी सब को).

खैर...यह तो हमारी जनता की पुरानी आदत है. चोर को भूल जाएँगे और चौकीदार की तुड़ाई करेंगे या थाने पर धरना देंगे. मरने वाला बिना हेलमेट के मरेगा लेकिन बड़ी गाड़ी वाले को पीट देंगे. बुढ़ऊ दारु पी पी कर लिवर खोखला कर के मरेगा मगर घर वाले डाक्टर को ठोक देंगे.

नीरव-मोदी-पर्व मनाने के लिए जिन लोगों को चेक भरने की भी तमीज नहीं वे भी बैंकिंग विशेषज्ञ हो गए. ट्विटर, WhatsApp और फेसबुक में अपनी डेढ़ आने की बुद्धि छापने लगे. यहाँ 37 साल बैंक में कलम घिसने के बाद भी नीरव काण्ड पर पूर्ण खुलासा नहीं मिल रहा और भाई लिख रहे हैं कि “जानिए - नीरव मोदी का असली खेल”.

सरकार और विपक्ष आदा-पादा खेलने में लगे हैं...यह तय करने के लिए कि इस बदबू का ज़िम्मेवार कौन है.

मगर इन सबके बीच एक छोटा सा समाचार सब से नज़र अंदाज़ हो गया. “मूडी ने कहा है कि वह पंजाब नेशनल बैंक की रेटिंग गिरा रहा है”. वाह रे पतली गली के मुसाफ़िर ! जब बंदा खड्डे में गिर गया तो बता रहे हो भाई साहब! यहाँ गड्ढा था. सब कुछ हो जाने के बाद अगर तुम रेटिंग बदल कर पतली गली से निकल लिए तो तुम्हारी पहली रेटिंग का फ़ायदा क्या ? इतने सब काण्ड के बाद तो हमारे लल्लू धोबी का लल्लू सा गधा भी रेटिंग बदल देगा. इसमें तुम्हारी क्या क़ाबलियत और तुमको इस नाक़ाबलियत का करोड़ों क्यों दें ?

मुझे आज तक ये रेटिंग एजेंसी का काम समझ में नहीं आया. इनकी रेटिंग के भरोसे बड़े बड़े निवेशों और ऋणों के निर्णय लिए जाते हैं और अचानक एक सवेरे, नेताओं के वादे की तरह, पलटी मार जाते हैं. रेटिंग बदल देते हैं. अब लो...कल्लो जो करना है. भैंस तो पानी में गोते खा गई.

भाई, तुम लोग कर क्या रहे थे रेटिंग देते वक्त ? इतने सारे गड्ढे, जो अब सामने आ रहे हैं, अगर तुमको नहीं दिखे तो तुम्हारी ज़रुरत ही क्या ? कॉन्ट्रैक्ट लेने से पहले तुम पावर-पॉइंट दिखा कर उल्लू बनाते हो...फिर रेटिंग देते समय दोबारा पावर-पॉइंट दिखा कर उल्लू बनाते हो और फिर...टंटा होने के बाद तीसरा पॉवर पॉइंट.

(मैं हमेशा कहता हूँ – अगर अनपढ़-गंवार को उल्लू बनाना है तो पॉवर चाहिए और पढ़े लिखों को उल्लू बनाना है तो पावर-पॉइंट चाहिए).

हमारे गाँव के ठाकुर चाचा आज तक अपने नऊए को गाली देते हैं. न्योता देने के अलावा नऊआ अगल बगल के गाँव में रिश्ते भी कराता था. घर घर जाता था तो मालूम था किसकी लड़की या लड़का शादी योग्य है और रेटिंग के हिसाब से बताता था कि वह रिश्ता कितना उपयुक्त है. ठाकुर चाचा की शादी के लिए भी उसी ने रिश्ता बताया था और चाची के गुणों की भूरि भूरि प्रशंसा करके बढ़िया रेटिंग दे कर चाचा को चाची चेंप दी थी. शादी की पहली रात ही जब ठाकुर चाचा ने पहली बार चाची का घूंघट उठाया तो पाया कि चाची के सामने के दो दांत मुंह के अंदर फ़िट नहीं बैठे थे इस वजह से वे बाहर ही रह गए थे.

बस फिर क्या था लाठी को तेल पिला कर चाचा नऊए को ढूँढने निकल पड़े. नऊए ने बहुत समझाया कि चाची हमेशा घूंघट में रहती थी तो अंदर की बात उसे कैसे पता चलती ? उसने चाची की रेटिंग बदलने का प्रस्ताव रखा तो जवाब में चाचा उसकी खोपड़ी चिटका चुके थे. अस्पताल से निकलने के बाद नऊआ सिर्फ़ न्यौता देता ही नज़र आया. रेटिंग देना छोड़ दिया. समझदार था वह.

तो भाई लोग, तुम्हारे इस रेटिंग के धंधे ने सिर्फ़ चाचा की जिंदगी ही बर्बाद नहीं करी...बहुतों की करी है और इस बात का गवाह है इतिहास और PNB का ताज़ा केस. रेटिंग एजेंसियों की ठुस्सियत के बाद भी रेटिंग के कानून की एहमियत में कोई कमी नहीं है और न ही रेटिंग एजेंसियों की ओर किसी का ध्यान जाता है. रेटिंग आती है, उसके आधार पर बड़े बड़े निर्णय होते हैं. रेटिंग ठुस्स हो जाती है तो नई रेटिंग आ जाती है. और हम एक बार बेवक़ूफ़ बन कर दोबारा बेवक़ूफ़ बनने के लिए कतार में लग जाते हैं.

ग़ज़ब की रेटिंग कला है तुम लोगों की – मौत तुम्हारे सिर पर मंडराए और तुमको भान ही नहीं? 'मस्त' रेटिंग का सर्टिफिकेट पकड़ा देते हो. और जब Dead on Arrival की घोषणा होती है तो रेटिंग बदल देते हो. तुमने बकरा होने का सर्टिफिकेट दिया. भाई ने बिरयानी बना के खा ली और बाद में तुमने सर्टिफिकेट बदल दिया - बोले ये बकरा नहीं कुत्ता था. अगर बकरे और कुत्ते का फ़र्क नहीं मालूम तो इस धंधे से कट लो भैय्या.

अगर नऊआ बुरा न माने तो एक गुर की बात कहूं...तुममें और नऊए में कोई फ़र्क नहीं. पांच किलो आटा और 1 किलो देसी घी मिलते ही वह किसी को भी मधुबाला वाली रेटिंग देकर उल्लू बनाने का धंधा करता था. अब तो हमें भी शक होने लगा है कि तुम्हारा भी कुछ आटे-घी का चक्कर है. 

आज नीरव के पावन पर्व पर इसे धमकी ही समझना कि जिस दिन लोग तुम्हारी रेटिंग करने लगेंगे, उस दिन तुम्हें आटे-घी का भाव पता चल जायेगा. एक बार चाची को रेटिंग दे दी तो उसे बदलने की सोचना भी नहीं. वरना तुम्हारी खोपड़ी होगी और जनता की लाठी. उस दिन से या तो तुम क़ायदे की रेटिंग करने लगोगे या शायद रेटिंग का धंधा छोड़ कर कुछ समझदारी का खोंचा लगाने लगोगे.