ईर कहिन हम घर जइबे। बीर कहिन हम जाने न देई।
ईर कहिन हम खाना खईबे। बीर कहिन हम खाने न देई।
ईर कहिन हम रोजगार करिबे। बीर कहिन हम करने न देई।
In short, ईर कुछ भी करना चाहे, बीर उसको करने न दे। ईर का जीना हराम हो गया। अगर वह बीर की बात नहीं मानता तो बीर उसकी तुड़ाई कर देता था। ईर बेचारा बीर से पिट पिट कर परेशान हो गया। कुछ समझ न आया कि क्या करे। कैसे बीर को समझाए या उससे पीछा छुड़ाए जिससे वह चैन से जी सके।
By chance, उसको पता चला कि कहानी में इक फत्ते भी रहिन और फत्ते का बीर पर अच्छा रुआब है। बीर फत्ते से दबता भी है और उसकी सुनता भी है।
ईर गया फत्ते के पास और अपना दुखड़ा सुना दिया और उससे गुज़ारिश करी कि फत्ते ईर को बीर से बचाए। काफ़ी मिन्नतों के बाद फत्ते मान गया।
फत्ते ने बीर को बुला भेजा और बोला "ए बिरुआ ! का है बे ? काहे इरुआ को परेसान करे है भाई ? ऊ हमार आदमी है। "
बीर ने फत्ते के हाथ जोड़े और वादा किया कि वह ईर को परेशान नहीं करेगा। उसके बाद से बीर ने वाक़ई ईर को परेशान करना बंद कर दिया। ईर बहुत खुश हुआ। ईर और बीर में दोस्ती होने लगी। साथ ही ईर के दिल में फत्ते के लिए बहुत इज़्ज़त बन गई।
उसने फत्ते के पास जाके उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करी और उसका धन्यवाद दिया।
फत्ते के दिमाग़ में राजनीति का बल्ब जल उठा। वह समझ गया कि ईर उसकी इज़्ज़त तभी तक करेगा जब तक उसके दिल में बीर का डर है। जिस दिन ईर और बीर दोस्त हो गए, वह फत्ते को घास भी न डालेगा। इसलिए ईर के मन में अपनी इज़्ज़त बनाये रखने के लिए फत्ते के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वह ईर और बीर को दोस्त न बनने दे और ईर के दिल में बीर का डर बनाए रखे। इस तरह ईर हमेशा फत्ते का ग़ुलाम बन कर रहेगा।
बस!!! उसके बाद से फत्ते ने कभी भी ईर और बीर को आपस में करीब न आने दिया.... कभी भी उन में दोस्ती नहीं होने दी। जब भी उसे ईर को अपने करीब लाना होता वह ईर और बीर में झगड़ा करा देता। डर कर ईर फिर फत्ते की शरण में आ जाता।
यह कहानी यहाँ से शुरू होती है मेरे दोस्त… ख़त्म नहीं।
फत्तेपुराण को कुछ राजनीतिज्ञों ने और धर्म के ठेकेदारों ने कंठस्थ कर लिया है और एक धर्म को ईर बना के और दूसरे धर्म को बीर बना कर सब पर शासन करते हैं। चाहे वह हिन्दू मुस्लिम के झगडे हों या शिया सुन्नी के या ऊँची जाति और नीची जाति के या दो अलग अलग प्रदेशवासियों के। दोनों के दिलों में एक दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत की आग जला कर रखते हैं। दंगे करा कर ये ईर और बीर दोनों के दिलों में एक दूसरे से डर पैदा कर देते हैं। उनको कभी दोस्त नहीं बनने देते हैं। घबरा कर ईर अपने फत्ते के पास शरण लेता है और बीर अपने फत्ते के पास। असली मज़ा लेते हैं दोनों ओर के फत्ते।
अब आप कहेंगे अमिताभ बच्चन जी की कविता में तो चार किरदार थे - 'इक रहिन ईर, इक रहिन बीर, इक रहिन फत्ते और इक रहिन हम।'
तीन किरदार (ईर, बीर और फत्ते) तो इस कहानी में आ गए…'हम' कहाँ गए ?'
तो भैय्या हम तो वह उल्लू हैं जो ईर, बीर और फत्ते के ड्रामे में बिना मतलब पिसते रहते हैं।
एक बार एक धार्मिक दंगे के बीच में हम फँस गए। एक बन्दा लपक के हमें मारने आया। हमने उसके हाथ जोड़ कर कहा "भाई, हमें मत मारो। हमारा धर्म तो पूछ लो। हो सकता है हम तुम्हारे धर्म के ही हों।"
वह बोला "चुप बे मूर्ख ! हम दंगों में इंसान मारने का ठेका लेते हैं - चाहें वह किसी भी धर्म का हो। हमारे फत्ते का और हमारा कोई धर्म नहीं होता।"
इति ईर-बीर-फत्ते modern पुराण !
बहुत सही। हमें अपने फत्ते पेहचान कर उन्हे expose करना चाहिये।
ReplyDeleteबहुत सही। हमें अपने फत्ते पेहचान कर उन्हे expose करना चाहिये।
ReplyDeleteतो भैय्या हम तो वह उल्लू हैं जो ईर, बीर और फत्ते के ड्रामे में बिना मतलब पिसते रहते हैं।
ReplyDeleteyeh khubzoorath line mein ne liya.
Aap poetry se shuru kar ke prose mein khatham kar diya. Beech mein colloqial bhasha bhi (bhojpuri?) ka prayog kiya.
Aage jaayiye......aur badiya rachanaavom keliye indazaar karthe huve...
murali
तो भैय्या हम तो वह उल्लू हैं जो ईर, बीर और फत्ते के ड्रामे में बिना मतलब पिसते रहते हैं।
ReplyDeleteyeh khubzoorath line mein ne liya.
Aap poetry se shuru kar ke prose mein khatham kar diya. Beech mein colloqial bhasha bhi (bhojpuri?) ka prayog kiya.
Aage jaayiye......aur badiya rachanaavom keliye indazaar karthe huve...
murali