अरे हाँ !!! चंपत होने से ध्यान आया...ये
Mallaya जी की क्या कहानी है ? ये तो बहुत बड़ा ठेला लगाते थे ? सुना है इन्होने भी
कई बैंकों के पैसों की भीषण डकार मारी है. और अब कहते हैं कि धंधे में नुकसान हो
गया तो वापस नहीं कर सकते.
क्या ऐसा इन्होंने बैंकों को लोन लेने से
पहले बताया था कि भैय्या ! धंधे में अगर फ़ायदा हुआ और मेरी नीयत भी ठीक रही तो मैं वापस कर दूंगा वर्ना
जय राम जी की ?
दूसरी बात – ऐसा कैसे हो गया कि धंधे में
नुकसान के बावजूद इनकी कम्पनियां तो ग़रीब होती गईं और ये और इनके करीबी - अमीर ?...दया,
कुछ तो गड़बड़ है.
मल्ल्या जी, पहले तो तुम, ठेलेवालों की
तरह, हिंदुस्तान की गलियों से बच के भाग लिए. फिर जब तुम्हारी कुण्डी घुमाई गई तो
तुम बोले कि रु. 4,400 करोड़ ले कर मामला रफ़ा दफ़ा करो क्योंकि इससे ज़्यादा देने की
तुम्हारी औकात नहीं है. जब कुण्डी और गहरी घुमाई गई तो आज तुमने उस रक़म को बढ़ा कर
रु. 6,868 करोड़ कर दिया. पता नहीं ये अतिरिक्त 2,468 करोड़ रूपये तुम्हारी कौन सी
चड्डी की जेब में पड़े थे जो कुछ दिन पहले तुम को इस का भान भी न था. एक बार अपनी सारी
चड्डियों को पहन पहन कर देख लो, पता नहीं किसमें पूरे 9,000 करोड़ निकल आएं. आख़िर
बैंकों से मार मार कर तुमने चड्डियों में ही तो
छुपाया था. इसी को हवाला कहते हैं गुरुदेव...आदमी हिंदुस्तान में पर चड्डियां
विदेशों में.
तुम्हारी तरह ही एक ठेलेवाला घनसुख था. फर्क
सिर्फ दो थे – एक, वह तुम्हारी तरह frenchie नहीं रखता था और दूसरा, कि वह पुराने
माल में deal करता था, जबकि तुमने पुराने माल पर कभी हाथ भी नहीं डाला. 5,000 रुपए
के लोन को निबटाने के लिए 2,000 रुपए में रफ़ा दफ़ा करना चाहता था. बहुत चालू था
तुम्हारी तरह...जो कमाता था अपनी बीबी और बेटे के खाते में डालता था और ऐश करता था
मगर बैंक को वापस करने के नाम पर तुम्हारी तरह कड़की का बहाना बनाता था. अब कल्लो
recovery.
अब इतना भी लौकी-कद्दू बेचनेवालों की तरह
मोलभाव मत करो यार...या तो तुम अंडा दे सकते हो या नहीं. अगर अंडा दे सकते हो तो
चुका दो पूरा लोन (आज तक किसी भी मुर्गी ने आधा अंडा नहीं दिया है. अद्धा और
क्वार्टर दारू में ही चलता है) और अगर अंडा नहीं दे सकते तो अपनेआप को कुड़क (दिवालिया)
घोषित कर दो. ताकि तुम्हारी बिरयानी बन सके.
जब तुम सर्वोच्च न्यायालय, ED, बैंकों
वगैरह से चड्डी चड्डी खेल ही रहे हो तो तुमको एक अन्दर की बात हम भी बता दें. जब
कभी भी किसी भी बैंक का कोई भी लोन खाता ख़राब होता है तो स्टाफ़ की accountability
ढूंढी जाती है. अगर लोन की रक़म बहुत बड़ी होती है, जैसी तुम्हारे मामले में है, तो accountability ढूंढी कम और थोपी ज़्यादा जाती है. बहुत
कम जांच अधिकारीयों ने लोन विभाग में काम किया होता है तो बेचारे समझ ही नहीं पाते
कि कहाँ से शुरू करें और किसको लटकाएं.
इसीलिए, बैंक वह ढाबे हैं जहाँ अगर एक
गिलास भी टूटता है तो accountability वहां से शुरू होती है कि गिलास ख़रीदा किसने
था और उसके बाद...जिस जिस ने उस गिलास को हाथ लगाया था...उन सब को लपेटा जाता है. यानि
कि, बैंक वालों की नज़र में तुम एक बहुत बड़ी छूत की बीमारी बन गए हो....HIV+ से भी
ख़तरनाक. जिसने भी तुमको हाथ लगाया वह स्वाहा !!!
10-12 सालों तक चलने वाली यह accountability
की प्रक्रिया उन सभी बैंक अधिकारीयों की ज़िन्दगी बर्बाद कर देती है जिन्होंने कभी भी
तुम्हें छुआ था. उनमें अधिकतर मासूम होते हैं. पर यह बात 10-12 साल के बाद ही बताई
जाती है. तब तक वे accountability का धब्बा ले कर, नज़र झुका कर जीवनयापन करते हैं.
पदोन्नति, पगार, इज्ज़त...सब पर मार पड़ती है. प्रणाली की ऐसी विडंबना कि जो चोर
बैंक का पैसा मारे वह निर्लज्जता से शान से जिए. उसे चोर कहने का भी कोई दुस्साहस
न कर सके और बेगुनाह लोग इन्फेक्शन का बदनुमा दाग़ ले के सिर्फ इसलिए घूमें क्योंकि
उन्होंने तुम को कभी न कभी छुआ था.
ऐसे में जो बद्दुआ उनके और उनके परिवार
वालों के दिलों से निकलती है वह अच्छे अच्छों को भस्म करने के लिए काफ़ी है. उस ‘हाय’ से डरो.
जिसका भी जो बकाया है, वह दे दो और बाकी बची अठन्नी चवन्नी की खुरचन से बाकी की
ज़िन्दगी ईमानदारी से गुज़ारो. तुम्हारी तो अठन्नी चव्वनी में भी करोड़ों का दम होगा.
अगर यह नहीं मंज़ूर है तो भस्मासुर के बारे में पढ़ लो.
बहुत खूब अनुराग जी।Good satire and based on hard facts. Really enjoyed it.
ReplyDeleteYour pots on accountability are facts and it is done by searching the weakest links in whose neck the noose can be fitted are punished and the powerful ones like CMD ED or higher ups will be spared. The seater are enjoying with Banks money and continue to do so
ReplyDeleteIn last line it is defaulters and not seaters
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